धार्मिक और आध्यात्मिक बातें सिर्फ सुनने में ही अच्छी नहीं लगती बल्कि इनका अनुसरण करने से मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी गहन प्रभाव पड़ता है।
ऐसा करने से अनजाने में ही लोग मनोविज्ञान के प्रभावी तरीके अपना लेते है।
एक नए अध्ययन से पता चला है कि धार्मिक लोग मनोवैज्ञानिकों की ही तरह कुछ ऐसे तरीकों का उपयोग करते है जो चिंता और डिप्रेशन को दूर करने में प्रभावी है। इस तरह धर्म और विज्ञान एक हो जाते है।
विज्ञान और धर्म में पॉजिटिव थिंकिंग पर जोर
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धार्मिक लोग कठिनाई के समय सकारात्मक सोचने के तरीके अपनाते है। मनोवैज्ञानिकों इसे ‘संज्ञानात्मक पुनर्मूल्यांकन’ (cognitive reappraisal) यानि तनावपूर्ण स्थिति में विचारों का पुनर्मूल्यांकन करना कहते है।
धार्मिक प्रवृति के लोग कठिनाई का सामना करने की अपनी क्षमता पर विश्वास रखते है। इसे ‘आत्म-प्रभावकारिता से मुकाबला करना’ (coping self-efficacy) यानि विभिन्न खतरों से निपटने की क्षमता के बारे में विश्वास होना, कहा जाता है।
दोनों स्थितियां चिंता और अवसाद के लक्षणों को कम करने में सक्षम है, ऐसा यूएस की यूनिवर्सिटी ऑफ इलिनोइस उरबाना-शैंपेन की टीम ने अपने अध्ययन में पाया।
इससे पता चलता है कि कठिनाइयों से मुकाबला करने की अवस्था में विज्ञान और धर्म एक ही तरह की नीति अपनाते है।
शोध में दिखा धार्मिक सोच का असर
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इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए, शोधकर्ताओं ने 203 लोगों को भर्ती कर अध्ययन किया।
शोधकर्ताओं ने प्रतिभागियों के धर्म, अध्यात्म और आत्मविश्वास का मूल्यांकन किया और उनसे अवसाद और चिंता के लक्षणों को मापने के लिए प्रश्न पूछे।
उन्होंने पाया कि यदि लोग धार्मिक तरीके का उपयोग कर इन परिस्थितियों का सामना करते है, तो वे चिंता या अवसाद के लक्षणों को कम कर देते है।
मनोविज्ञान द्वारा सुझाए ‘संज्ञानात्मक पुनर्मूल्यांकन’ और ‘आत्म-प्रभावकारिता से सामना करना’ दोनों तरीके इसी तरह संकट के क्षणों को कम करने में योगदान देते है।