विज्ञान के उपयोग से अब क्रिकेट स्टेडियम की घास को खिलाडियों और फैन्स के मूत्र से हरा भरा किया जाएगा. इस खोज को नाम दिया गया है, “यूरीन एक्सप्रेस.” इसके तहत घास से भरे स्टेडियमों से निकलने वाले इंसानी मूत्र को एक चलता फिरता ट्रीटमेंट प्लांट फॉस्फोरस में बदलेगा. इस तरीके से फॉस्फोरस जैसा खनिज भी मिलेगा और पानी की बर्बादी भी कम होगी.
कैसे काम करेगी ये तकनीक
स्विट्ज़रलैंड की एक कंपनी द्वारा बनाये गए ट्रीटमेंट प्लांट में स्टील के एक टैंक को इंसानी मूत्र से भरा जाता है. फिर उसमें बैक्टीरिया, शैवाल के साथ कुछ अन्य चीजें मिलाई जाती है. इस दौरान तरल अपशिष्ट का काफी हिस्सा गाढ़ेपन के साथ ठोस होने लगता है. साथ ही पानी उससे अलग होने लगता है. इस पानी से प्रदूषक, कीटाणु और दुर्गंध को दूर किया जाता है. अंत में पानी 90 फीसदी तक साफ हो जाता है. इस प्रक्रिया के दौरान मिले गाढ़े अपशिष्ट में मैग्नीशियम ऑक्साइड मिलाया जाता है. यह फॉस्फोरस को बांधते हुए मैग्नीशियम अमोनियम फॉस्फेट (एमएपी) बनाता है. फिर एक्टिवेटेड कार्बन की मदद से इससे फॉस्फोरस को अलग किया जाता है.
खाद और पानी दोनों
विशेषज्ञों के अनुसार आम तौर पर एक लीटर मूत्र को बहाकर साफ करने के लिए हम 100 लीटर पानी इस्तेमाल करते हैं. इस सिस्टम की बदौलत 1,000 लीटर मूत्र से दो या तीन दिन के भीतर 70 लीटर खाद और 930 लीटर पानी हासिल किया जा सकता है. इतनी खाद को 2,000 वर्गमीटर के इलाके में इस्तेमाल किया जा सकता है. पानी की और ज्यादा प्रोसेसिंग कर उसे पीने लायक बनाया जा सकता है. बिल गेट्स फाउंडेशन भी ऐसी तकनीक अफ्रीकी देशों में पहुंचा रही है. इससे निकलने वाले साफ पानी को ख़ुद बिल गेट्स ने पीकर दिखाया.
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सिर्फ खाद पर फोकस
लेकिन ‘यूरीन एक्सप्रेस’ खोजने वाली कंपनी का कहना है कि वह पेयजल के बारे में नहीं सोच रही है. कंपनी का कहना है कि जितना फॉस्फोरस प्राकृतिक संसाधनों से निकाला जाता है, उसका 90 फीसदी इस्तेमाल कृषि और खाद्यान्न उद्योग करते हैं. अब फॉस्फेट से समृद्ध चट्टानें धीरे धीरे कम खत्म होती जा रही हैं. नए इलाकों में ऐसी चट्टानों को खोजने का मतलब होगा, प्रकृति से नई जगह छेड़छाड़. इसलिए अब इस जरूरी खनिज की रिसाइक्लिंग पर जोर दिया जा रहा है.